पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१२१

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दुर्गाका मन्दिर दूसरे कमरे में बन्द कर देती। अब उसे शङ्का होने लगती थी कि कहीं यह कष्ट उन्ही रुपयों के कारस् तो नही भोगना पड़ रहा है। कौन जावे रुपयेवालेने कुछ कर धर दिया हो। जरूर यही बात है, नही दो औषषिसे लास क्यों नहीं होता। सकट पड़नेपर हम धर्मभीर हो जाते हैं। मामाने भी देवताओंकी शरण ली। वह बन्माष्टमी, शिवरात्रि और तीजके सिवा और कोई व्रत न रखती थी। इस बार उसने नौरात्रका कटिन व्रत पालन करन्य आरम्म किया। आठ दिन पूरे हो गये। अन्तिम दिन आया। प्रभातका समय था। मामाने ब्रजनाथको दवा पिलायी और दोनों बालकों को लेकर दुर्गाजीकी पूजा करने मन्दिर में चली। उसका हृदय आराध्य देवी के प्रति श्रद्धासे परिपूर्ण था। मन्दिरके आगनमें पहुँची। उपासक आसनोपर बैठे हुए दुर्गापाट कर रहे थे । धूप और अगरकी सुगन्धि उड़ रही थी। उसने मन्दिरमें प्रवेश किया। सामने दुर्गाकी विशाल प्रतिमा शोभायमान थी। उसके मुखारविन्दसे एक विलक्षण दीप्ति झलक रही थी। बड़े उज्ज्वल क्षेत्रों से प्रभाकी किरयो आलोकित हो रही थीं। पवित्रताका एक समाँसा छाया हुआ था। भामा इस दौतिपूर्ण मूर्तिके सम्मुख सीधी ऑखोंसे ताक न सकी। उसके अन्तःकरण में एक निर्मल विशुद्ध, भावपूर्ण भय उदय हो गया । उसने ऑखे बन्द कर ली, घुटनोंके बल बैठ गयी और कर जोड़कर करुण स्वरमे बोली- माता! मुझपर दया करो। उसे ऐसा शत हुआ मानो देवी मुस्कुराई । उसे उन दिब्यू बेत्रोंसे एक ज्योतिषी निकलकर अपने हृदयमें आती हुई मालूम