पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१२२

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प्रेम पूर्णिमा १२० हुई । उसके कानों में देवीके में हसे निकले ये शब्द सुनाई दिये- पराया धन लौटा दे, तेरा भला होगा।' भामा उठ बैठी। उसकी आँखोंमें निर्मल भक्तिका आभास झलक रहा था। मुखमण्डलसे पवित्र ग्रेम बरसा पड़ता था। देवीने कदाचित् उसे अपनी प्रभाके रङ्गमें डुवा दिया था। इतने में दूसरी एक स्त्री आयी। उसके उज्ज्वल केश बिखरे और मुरझाये हुए चेहरेके दोनों ओर लटक रहे थे। शरीरपर केवल एक इवेत साड़ी थी। हाथमें चूड़ियोंके सिवा और कोई आभूषण न था । शोक और नैराश्यकी साक्षात् मूर्ति मालम होती थी। उसने भी देवीके सामने सिर झुकाया और दोनों हाथोंसे ऑचल फैलाकर बोली-देवी, जिसने मेरा धन लिया हो उसका सर्वनाश करो। जैसे सितार मिजराबकी चोट खाकर थरथरा उता है उसी प्रकार भामाका हृदय अनिष्टके भयसे थरथरा उग। ये शब्द तीव शरके समान उसके कलेजे में चुभ गये। उसने देवीकी ओर कातर नेत्रोंसे देखा। उनका ज्योतिर्मय स्वरूप भयङ्कर था और नेत्रोंसे भीषण ज्वाला निकल रही थी। भामाके अन्त.करणमें सर्वत्र आकाशसे, मन्दिरके सामनेवाले वृक्षोंसे, मन्दिरके स्तम्भोंस, सिंहासनके ऊपर जलते हुए दीपकसे, और देवौके विकराल मैं इसे ये शब्द निकल कर गूजने लगे-'पराया धन लौय दे नहीं तो तेरा सर्वनाश हो जायगा।' भामा खड़ी हो गयी और उस वृद्धासे बोली-क्यों माता ! तुम्हारा धन किसीने ले लिया है। वृद्धाने इस प्रकार उसकी ओर देखा, मानोंडूबतेको तिनकेका