पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१२५

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१२३ दुर्गाका मन्दिर तुलसीका पर एक गलीमे था । इका सड़कपर जाकर ठहर गया। ब्रजनाथ इक्केपरसे उतरे और अपनी छडी टेकते हुए भामा के हाथोंके सहारे तुलसीके घर पहुंचे। तुलसीने रुपये लिये और दोनों हाथ फैलाकर आशीर्वाद दिया-दुर्गाजी तुम्हाराकल्याण करें! तुलसीका वहीन मुख यो खिल गया जैसे वर्षाके पीछे वृक्षों की पत्तियाँ खिल जाती हैं, सिमटा हुआ अङ्ग फैल गया गालोकी झुर्रियों मिटतो देख पड़ी। ऐसा मालूम होता थामानों उसका कायाकल्प हो गया। वहाँसे आकर ब्रजनाथ अपने द्वारपर बैठे हुए थे कि गोरे. लाल आकर बैठ गये। ब्रजनाथने मुंह फेर लिया। गोरेलाल बोले-माई साइब, कैसी तबियत है ? ब्रजनाथ-बहुत अच्छी तरह हूँ। गोरेलाल-मुझे क्षमा कीजियेगा । मुझे इसका बहुत खेद है कि आपके रुपये देनेमें इतना विलम्ब हुआ। पहली तारीखको घरसे एक आवश्यक पत्र आ गया और मै किसी तरह तीन महीनेकी छुट्टी लेकर घर भागा। वहॉकी विपत्ति-कथा कहूँ तो समाप्त न हो। लेकिन आपकी बीमारीका शोक समाचार सुनकर आज भागा चला आ रहा हूँ। ये लीजिये रुपये हाजिर हैं। इस विलम्बके लिये अत्यन्त लज्जित हूँ। ब्रजनाथका क्रोध शान्त हो गया। विनयमें कितनी शक्ति है। बोले-जी हॉ, बीमार तो था, लेकिन अब अच्छा हो गया हूँ। आपको मेरे कारण व्यर्थ कष्ट उपना पड़ा। यदि इस समय आपको असुविधा हो तो रुपये फिर दे दीजियेगा । मैं अब ऊऋण हो गया हूँ। कोई जल्दी नहीं है।