पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१२७

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१२५ सेवा-मार्ग दिलसे नहीं जाती थी। यही उसकी इच्छा यी, यही उसका जीवनोद्दश्य । घरके लोग उसे पागल कहते। माता समझाती- 'बेटी तुझे क्या हो गया है ? क्या तू सारा जीवन रो रोकर काटेगी? इस समयके देवता पत्थरसे होते हैं। पत्थरको भी कभी किसीने पिघलते देखा है ? देख, तेरी सखियों पुष्पकी भाति विकसित हो रही हैं, नदीकी तरह बढ़ रही हैं ; क्या तुम मुझपर दया नहीं आती?" तारा कहती माता-'अब तो जो लगन लगी, वह लगी। या तो देवीके दर्शन पाऊँगी, था यही इच्छा लिये हुए ससारसे पयान कर जाऊँगी। तुम समझ लो मैं मर गयी। इस प्रकार पूरे बारह वर्ष व्यतीत हो गये और तब देवी प्रसन्न हुई । रात्रिका समय था। चारो ओर सन्नाटा छाया हुआ था। मन्दिर में एक धुघलासा धीका दीपक जल रहा था। तारा दुर्गाके पैरोंपर माथा नवाये सच्ची भक्तिका परिचय दे रही थी। यकायक उस पाषाणमूर्तिदेवीके तनमें स्फूर्ति प्रकट हुई। ताराके रोंगटे खड़े हो गये। वह धुंधला दीपक देदीप्यमान हो गया। मन्दिरमे चित्ताकर्षक सुगन्धि फैल गयी और वायुमें सजीवता प्रतीत होने लगी। देवीका उज्ज्वल रूप पूर्ण चन्द्रमाकी भाति चमकने लगा। ज्योतिहीन नेत्र जगमगा उठे। होठ खुल गये। आवाज आयी-तारा, मैं तुझसे प्रसन्न हूँ,मॉग, क्या वर मॉगती है ! तारा खड़ी हो गयी। उसका शरीर इस माति काँप रहा था, जैसे प्रातःकालके समय कम्पित स्वरमें किसी कृषकके गानेकी ध्वनि | उसे मालूम हो रहा था मानों वह वायुमें उड़ी जा रही है। उसे अपने हृदय में उच्च विचार और पूर्ण प्रकाशका आभास