पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१२८

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श्रेम पूर्णिमा १२६ प्रतीत हो रहा था। उसने दोनों हाथ जोड़कर भक्ति-भावसे कहा- भगवती, तुमने मेरी १२ वर्षकी तपस्था पूरी को, किस मुखसे तुम्हारा गुणानुवाद गाऊँ। मुझे संसारकी वे अलभ्य वस्तुये प्रदान हों, जो इच्छाओंकी सीमा और मेरी अभिलाषाओंका अन्त है । मैं वह ऐश्वर्य चाहती हूँ जो सूर्यको भी मान कर दे। देवीने मुस्कराकर कहा--स्वीकृत है। तारा-वह धन जो कालचक्रको भी लजित करे। देवीने मुस्कराकर कहा-स्वीकृत है। वारा---वह सौन्दर्य जो अद्वितीय हो। देवीने मुस्कराकर कहा-यह भी स्वीकृत है। [२] तारा कुँवरिने शेष रात्रि जागकर व्यतीत की। प्रमातकाल- के समय उसकी आँखें क्षणभर के लिये शपक गयी। जागी तो देखा कि मै सिरसे मॉबतक हीरे व जवाहिरोंसे लदी हूँ। उसके विशाल भवनके कलश आकाशसे बाते कर रहे थे। सारा भवन सङ्गमरमरसे बना हुआ, अमूल्य पत्थरोंसे जड़ा हुआ था । द्वारपर चौबत बज रही थी। उसके आनन्ददायक सुहावने शब्द आकाश- में गूंज रहे थे । द्वारपर मीलोतक हरियाली छाई हुई थी। दासियों स्वर्णाभूषणोंसे लदी हुई सुनहरे कपडे पहने हुए चारों ओर दौड़ती थीं । ताराको देखते ही वे स्वर्णके लोटे और कटोरे लेकर दौड़ी। ताराने देखा कि मेरा पलङ्ग हाथी दॉतका है। भूमिपर बड़े कोमल बिछौने बिछे हुए हैं। सिरहानेकी ओर एक बड़ा सुन्दर ऊँचा शीशा रखा हुआ है। तरसने उसमें अपना रूप. 1