पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
ईश्वरीय न्याय
 

सेठजीने समझ लिया कि इस समय समझाने बुझानेसे कुछ काम न चलेगा। कागजात देखे, अभियोग चलानेकी तैयारियाॅ होने लगी।

[४]

मुन्शी सत्यनारायणलाल खिसियाये हुए मकान पहुॅचे। लड़केने मिठाई मॉगी। उसे पीटा। स्त्रीपर इसलिये बरस पड़े कि उसने क्यों लड़केको उनके पास जाने दिया। अपनी वृद्धा माताको डॉटकर कहा—तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि जरा लड़केको बहलाओ। एक तो मैं दिनभरका थका मादा घर आऊॅ और फिर लड़केको खेलाऊॅ? मुझे दुनियामें न और कोई काम है न धन्धा।

इस तरह घरमें बावैला मचाकर वह बाहर आये और सोचने लगे-मुझसे बड़ी भूल हुई। मैं कैसा मूर्ख हूॅ! इतने दिनतक सारे कागज-पत्र अपने हाथमें थे। जो चाहता कर सकता था। पर हाथपर हाथ धरे बैग रहा। आज सिरपर आ पड़ी तो सूझी। मैं चाहता तो बहीखाते सब नये बना सकता था, जिसमें इस गाॅव का और इस रुपयेका जिक्र ही न होता। पर मेरी मूर्खताके कारण घरमें आई हुई लक्ष्मी रूठी जाती है। मुझे क्या मालूम था कि वह चुड़ैल मुझसे इस तरह पेश आवेगी और कागजोंमें हाथतक न लगाने देगी।

इसी उधेड़-बुनमें मुन्शीजी यकायक उछल पड़े। एक उपाय सूझ गया—क्यों न कार्यकर्ताओंको मिला लूॅ। यद्यपि मेरी सख्तीके कारण वे सब मुझसे नाराज थे और इस समय सीधे