पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१३१

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सेवा मार्ग चौखटपर माथा रगड़ने लगे। जिसकी और उसकी कृपा दृष्टि हो जाती, वह अपना अहोभाग्य समझता। सदैव के लिये उसका बैदामका गुलाम बन जाता। एक दिन तारा अपनी प्रानन्द वाटिकामें टहल रही थी। अचानक किसी के गानेका मनोहर शब्द सुनाई दिया। तारा विक्षिप्त हो गयी। उसके दरबारमें एसरके अच्छे-अच्छे गवैये मौजूद थे, पर वह चित्ताकर्षकता, जो इन सुरोंमें थी, कभी अब- गत न हुई यो । ताराने गायकको बुला भेजा। एक क्षण के अनन्तर वाटिकामें एक साधु आया, सिरपर जय शरीरमें भस्म रमाये । उसके साथ एक टूटा हुआ बीन था। उससे बह प्रभावशाली स्वर निकलता या जो हृदयके अनुरक्त स्वरोंसे कही प्रिय था। साधु आकर हौजके किनारे बैठ गया। उसने ताराके सामने शिष्ठमाव नहीं दिखाया। आश्चर्यसे इधर-उधर दृष्टि नहीं डाली। उस रमणीय स्थानपर वह अपना सुरअलापने लगा | ताराका चित्त विचलित हो उठा। दिल में अपार अनुरागका सञ्चार हुआ। मदमत्त होकर टहलने लगी। साधुके सुमनोहर मधुर अापसे पक्षी मन ही गये । पानीमें लहरें उठने लगीं। वृक्ष झूमने लगे। ताराने उन चित्ताकर्षक सुरोसे एक चित्र खिंचते हुए देखा। धीरे धीरे चित्र प्रकट होने लगा। उसमें मूर्ति आयी। और तब, वह खड़ी होकर नृत्य करने लगी। तारा चौक पड़ी। उसने देखा कि यह मेरा ही चित्र है। नहीं, मैं हो हूँ। मैं ही बीनकी तानपर नृत्य कर रही हूँ। उसे आवर्ष हुआ कि मैं संसारकी अलभ्य वस्तुओंकी रानी हूँ अथवा. एक स्वर-चित्र ! वह सिर धुनने लगी और मतवाली होकर ९