पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१३२

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प्रेम पूर्णिमा साधुके पैरोंसे जा लगी। उसको दृष्टि में एक आश्चर्यजनक परि- वतन हो गया । सामनेके फले-फूले वृक्ष और तरंगें मारता हुआ हौज, और मनोहर कुञ्ज सब लोप हो गये। केवल वही मधु बैठा बीन बजा रहा था, और वह स्वय उसकी तालोपर थिरक रही थी। वह साधु अब प्रकाशमय तारा और अलौकिक सौन्दर्य- की मूर्ति बन गया था। जब मधुर अलाप बन्द हुआ तब वारा होशमें आयी। उसका चित्त हाथसे जा चुका था। वह उस विलक्षण साधुके हाथों बिक चुकी थी। तारा बोली-स्वामीजी । यह महल, यह धन, यह सुख और सौन्दर्य सब आपके चरण कमलपर निवर है। इस अन्धेरे महलको अपने कोमल चरणोंसे प्रकाशमान कीजिये । साधु-साधुओंको महल और धनका क्या काम ? मैं इस घरमें नहीं ठहर सकता। तारा-संसारके सारे सुख आपके लिये उपस्थित हैं। साधु-मुझे सुखोंकी कामना नही। तारा-मैं आजीवन आपकी दासी रहूँगी। यह कहकर ताराने आइनेमें अपने अलौकिक सौन्दर्यकी छटा देखी और उसके नेत्रों में चञ्चलता आ गयी। साधु-नही तारा कॅबरि, में इस योग्य नहीं हूँ। यह कहकर साधुने बीन उठाया और द्वारकी ओर चला । ताराका गर्व ट्रक- टूक हो गया। लजासे सिर झुक गया। वह मूच्छित होकर भूमिपर गिर पड़ी। मनमें सोचा-मैं धनमें, ऐश्वर्य में, सौन्दर्य में ब्रो अपनी समता नही रखती, एक साधुको दृष्टिमें इतनी तुच्छ !!