पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१३३

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सेवामार्ग [४] ताराको अब किसी प्रकार चैन नही था। उसे अपना भवन और ऐश्वर्य भयानक मालूम होने लगा। बस, साधुका एक चन्द्रस्वरूप उसकी आँखोंमे नाच रहा था और उसका स्वर्गीय गान कानोंमें गूंज रहा था। उसने अपने गुप्तचरोंको बुलाया और साधुका पता लगानेकी आज्ञा दी। बहुत छानबीनके पश्चात् उसकी कुटीका पता लगा। वारा नित्यप्रति वायुयानपर बैठकर साधुके पास जाती; कभी उसपर लाल, जवाहिर लुटाती, कभी रत्न और आभूषणकी छटा दिखाती। पर साधु इससे तनिक भी विचलित न हुआ। ताराके मायाजालका उसपर कुछ भी असर न हुआ। तत्र, वाराकुवरि फिर दुर्गाके मन्दिरमें गयी और देवीके चरणोपर सिर रखकर बोली--माता, तुमने मुझे संसारके सारे दुर्लभ पदार्थ प्रदान किये। मैंने समझा था कि ऐश्वर्यमे ससार- को दास बना लेनेकी शक्ति है, पर मुझे अब ज्ञात हुआ कि प्रेमपर ऐश्वर्या, सौन्दर्य और वैभवका कुछ भी अधिकार नहीं । अब एक बार मुझपर फिर वही कृपादृष्टि हो। कुछ ऐसा कीजिये कि जिस निष्ठुरके प्रेममें मैं मरी जा रही हूँ उसे भी मुझे देखे बिना चैन न आवे! उसकी ऑखोंमें भी नीद हराम हो जाय, वह भी मेरे प्रेम-मदमें चूर हो जाय । देवीके होंठ खुले, वह मुस्कराई। उसके अधर पल्लव विक. सित हुए। बोली सुनाई दी-तारा, मैं ससारके सारे पदार्थ प्रदान कर सकती हूँ, पर स्वर्ग-सुख मेरी शक्तिसे बाहर है । 'प्रेम' स्वर्ग सुखका मूल है।