पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१३४

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प्रेम-पूर्णिमा वारा--माता, ससारके सारे ऐश्वर्य मुझे जंजाल जान पडते हैं। बताइये, मैं अपने प्रीतमको कैसे पाऊँगी? देवी-उसका एक ही मार्ग है, पर है यह बहुत कठिन । भला, तुम उसपर चल सकोगी? तारा-वह कितना ही कठिन हो, मैं उस मार्गका अवलम्बन अवश्य करूँगी। तो सुनो वह सेवा मार्ग है। सेवा करो, प्रेम सेवाहीसे मिल सकता है। देवी-अच्छा, ताराने अपने बहुमूल्य जड़ाऊ आभूषणों और रंगीन वस्त्रोको उतार दिया । दासियोंसे विदा हुई। राजभवनको त्याग दिया। अकेले नंगे पैर साधुकी कुठीमें चली आयी और सेवामार्गका अवलम्बन किया। वह कुछ रात रहे उठती । कुटीमे झाड देती। साधुके लिये गङ्गासे जल लाती । जंगलोंसे पुष्प चुनती। साधु नींदमें होते तो वह उन्हें पखा झलती। जङ्गली फल तोड लाती और केलेके पतल बनाकर साधुके सम्मुख रखती। साधु नदीमें स्नान करने जाया करते थे। तारा रास्तेसे कंकर चुनती। उसने कुटीके चारों ओर पुष्प लगाये । गङ्गासे पानी लाकर सोचती। उन्हे हरा भरा देखकर प्रसन्न होती। उसने मदारकी रूई बटोरी, साधुके लिये नर्म गर्दै तैयार किये । अब और कोई कामना न थी! सेवा स्वयं अपना पुरस्कार और फल थी। ताराको कई-कई दिन उपवास करना पड़ता। हाथोंमें गह