पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१३५

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सेवा-भायं पड़ गये। पैर कांटोंसे चलनी हो गये। धूपसे कोमल गाव मुरक्षा गया। गुलाब-सा बदन सूख गया, पर उसके हृदयमें अब स्वार्थ और गर्वका शासन न था। वहाँ अब प्रमका राज था; वहाँ अब उस सेवाको लगन थी-जिससे कलुषताकी जगह आनन्दका स्रोत बहता है और कॉटे पुष्प बन जावे हैं; जहाँ अश्रु-धाराकी जगह नेत्रोंसे अमृत-जलकी वर्षा होती और दुःख विलापकी जगह आनन्दके राग निकलते हैं, जहॉके पत्थर रूईसे ज्यादा कोमल हैं और शीतल वायुसे भी मनोहर। तारा भूल गया कि मैं सौन्दर्यमें अद्वितीय हूँ। धन विलासिनी तारा अब केवल प्रमकी दासी थी। साधुको वनके खगों और मृगोंसे प्रेम था । वे कुटीके पास एकत्रित हो जाते ! वारा उन्हें पानी पिलाती, दाने चुगाती, गोद- मे लेकर उनका दुलार करती। विषधर साप और भयानक जन्तु उसके प्रेमके प्रभावसे उसके सेवक हो गये। बहुधा रोगी मनुष्य साधुके पास आशीर्वाद लेने आते थे। तारा रोगियोंकी सेवा, सुश्रूषा करती, जंगलसे जड़ी-बूटियाँ ढूढ़ लाती, उनके लिये औषधि बनाती. उनके घाव धोती, धावापर मरहम रखती, रात-रातभर बैठी उन्हें पंखा झलती। साधुके आशीर्वादको उसकी सेवा प्रभावयुक्त बना देती थी। इस प्रकार कितने ही वर्ष बीत गये। गर्मीके दिन थे, पृथ्वी तधेकी तरह जल रही थी। हरे-भरे वृक्ष सूखे जाते थे। गंगा गर्मी से सिमट गयी थी.! ताराको पानी लेनेके लिये बहुत दूर रेतमें चलना पड़ता । उसका कोमल अङ्ग चूर-चूर हो जाता। जलती हुई रेतमें तलवे भुन जाते। इसी दशामें एक दिन वह हताश