पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१३६

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प्रेम पूर्णिमा १३४ होकर एक वृक्ष के नीचे क्षणभर दम लेने के लिये बैठ गयी। उसके मेन बन्द हो गये। उसने देखा, देवी मेरे सम्मुख खड़ी, कृपा दृष्टिसे, मुझे देख रही है । ताराने दौड़कर उनके पदोको चूमा । देवीने पूछा-तारा, तेरी अभिलाषा पूरी हुई ? तारा-हाँ माता, मेरी अभिलाषा पूरी हुई। देवी-तुझे प्रेम मिल गया ? तारा-नहीं माता, मुझे उससे भी उत्तम पदार्थ मिल गया। मुझे प्रेमके हीरेके बदले सेवाका पारस मिल गया। मुझे ज्ञात हुआ है कि प्रेम सेवाका चाकर है। सेवाके सामने सिर झुकाकर अब मै प्रेम-भिक्षा नहीं चाहती। अब मुझे किसी दूसरे मुखकी अभिलाषा नहीं। सेवाने मुझे प्रेम, आदर, सुख, सबसे निवृत्त कर दिया। देवी इस बार मुस्कराई नही । उसने ताराको हृदयसे लगाया और दृष्टिसे ओझल हो गयी। संध्याका समय था। आकाशमें तारे ऐसे चमकते थे जैसे कमलपर पानीकी बूंदें । वायुमें चित्ताकर्षक शीतलता आ गयी थी। तारा एक वृक्षके नीचे खड़ी चिड़ियोंको दाना चुगाती थी, कि यकायक सधुने आकर उसके चरणोंपर सिर झुकाया और बोला-तारा, तुमने मुझे जीत लिया । तुम्हारा ऐश्वर्य, धन और सौन्दर्य जो कुछ न कर सका, वह तुम्हारी सेवाने कर दिखाया। तुमने मुझे अपने प्रेममें आसक्त कर लिया । अब मै तुम्हारा दाव हूँ। बोलो, तुम मुझसे क्या चाहती हो? तुम्हारे संकेतपर अब