पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१३७

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शिकारी राजकुमार मैं अपना योग और वैराग्य सब कुछ न्यौछावर कर देनेके लिये प्रस्तुत हूँ। तारा-स्वामीजी! मुझे अब कोई इच्छा नही। मैं केवल सेवाकी आश चाहती हूँ। साधु-मैं दिखा दूंगा कि ऐसे योग साधकर भी मनुष्यका हृदय निर्जीव नहीं होता । मैं भेवरेके सदृश तुम्हारे सौन्दर्यपर मंडराऊंगा। पपीहेकी तरह तुम्हारे प्रमकी रट लगाऊँगा। हम दोनों प्रेमकी नौकापर ऐश्वर्य और वैभव नदीकी सैर करेंगे, मम कुञ्जोंमें बैठकर प्रमचर्चा करेंगे और आनन्दके मनो. हर राग गावेंगे। ताराने कहा-स्वामीजी सेवामार्गपर चलकर मैं अब अभि- लाषाओंसे पूरी हो गयी। अब हृदयमें और कोई इच्छा शेष साधुने इन शब्दों को सुना, वाराके चरणोपर माथा नवाया और गंगाकी ओर चल दिया। शिकारी राजकुमार-- [१] मईका महीना और मध्याहका समय था। सूर्यकी ऑखें -सामनेसे हटकर सिरपर जा पहुँची थीं। इसलिये उनमें शील न .