पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१३८

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प्रेम पूर्णिमा था। ऐसा विदित होता था मानों पृथ्वी उनके भयसे थर-थर काँप रही थी। ठीक ऐसे ही समय एक मनुष्य एक हिरनके पीछे उन्मत्त भावसे छोड़ा फेंके चला आता था। उसका मुंह लाल हो रहा था और घोडा पसीनेसे लथ-पथ । किन्तु मृग भी ऐसा भागता था मानों वायुदेशसे जा रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि उसके पद भूसिको स्पर्श नहीं करते। इसी दौड़की जीत-हारपर उसका जीवन निर्भर था। पछुआ ह्या बड़े जोरसे चल रही थी। ऐसा जान पड़ता था मानों अग्नि ओर धूलकी वर्षा हो रही हो। घोड़ेके नेत्र रक- वर्ण हो रहे थे और आश्वारोहीके सारे शरीरका धिर उबल सा रहा था। किन्तु, मृगका भागना उसे इस बातका अक्सर न देता था कि वह अपनी बन्दूकको सम्हाले। कितने हो ऊखके खेत, ढाकके बन और पहाड़ सामने पड़े और तुरन्त ही सपनेकी सम्पत्ति- की मॉति अश्य हो गये। क्रमशः मृग और अश्वारोहीके बीच अधिक अन्तर होता ज्जता था कि अचानक मृग पीछेकी ओर मुड़ा। सामने एक नदीका बड़ा ही ऊँचा करारा दीवारकी भाँति खड़ा था। आगे भागनेको राह बन्द थी और उसपरसे कूदना मानो मृत्युके मुखमें कूदना था। हिरनका शरीर शिथिल पड़ गया। उसने एक करणा- भरी दृष्टि चारो ओर फेरी । किन्तु, उसे इर तरफ मृत्यु ही मृत्यु दृष्टिगोचर होती थी। आश्वारोहीके लिए इतना समय बहुत था। उसको बन्दूकसे गोली क्या छूटी मान्य मृत्युने एक महा भयंकर जय ध्वनिके साथ अग्निकी एक प्रचण्ड ज्वाला उगल दी। हिरन भूमिभर लोट गया।