पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शिकारी सजकुमार [ २ ] मृग पृथ्वीपर पड़ा तड़प रहा था और अश्वारोहीकी भयङ्कर और हिंसाप्रिय ऑखोंसे प्रसन्नताकी ज्योति निकल रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि उसने असाध्य साधन कर लिया। उसने उस पशुके शवको नापनेके बाद उसके सींगोंको बड़े ध्यानसे देखा और मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि इससे कमरेकी सजावट दूनी हो जायगी और नेत्र सर्वदा उस सजावटका आनन्द सुखसे भोगेंगे। जबतक वह इस ध्यानमें मन था, उसको सूर्यकी प्रचण्ड किरणोंका लेशमात्र भी ध्यान न था, किन्तु ज्योंही उसका ध्यान उधर फिरा वह उष्णतासे विह्वल हो उठा और करुणापूर्ण आँखें नदीकी ओर डाली, लेकिन वहॉतक पहुँचनेका कोई भी मार्ग न देख पड़ा और न कोई वृक्ष ही देख पड़ा, जिसकी छहमें वह जरा विश्राम करता इसी चिन्तावस्थामें एक अति दीर्घकाय पुरुष नीचेसे उछल. कर करारेके ऊपर आया और अश्वारोहीके सम्मुख खड़ा हो गया। अश्वारोही उसको देखकर बहुत ही अचम्भित हुआ। भवागन्तुक एक बहुत ही सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट मनुष्य था । मुखक्के भाव उसके हृदयकी स्वच्छता और चरित्रकी निर्मलताका पता देते थे। वह बहुत ही दृढ-प्रतिश, आशा निराशा तथा भयसे बिल्कुल बेपरवाह सा जान पड़ता था। मृगको देखकर उस सन्यासीने बड़े साधीनभावसे कहा- राजकुमार लुम्हें आज बहुत ही अच्छा शिकार हाथ लगा। इतना बड़ा मृग इस सीमामे कदाचित् ही दिखाई पड़ता ।