पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१४०

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प्रेम पूर्णिमा राजकुमारके अचम्मेकी सीमा न रही, उसने देखा कि साधु उसे पहचानता है। राजकुमार बोला- जी हॉ। मैं भी यही खयाल करता हूँ। मैंने भी आजतक इतना बड़ा हिरन नही देखा। लेकिन इसके पीछे मुझे आज बहुत हैरान होना पड़ा। सन्यासीने दयापूर्वक कहा-निःसन्देह तुम्हें दुःख उठाना पड़ा होगा । तुम्हारा मुख लाल हो रहा है और घोड़ा भी बेदम हो गया है। क्या तुम्हारे सगी बहुत पीछे रह गये? इसका उत्तर राजकुमारने बिल्कुल बे परवाहीसे दिया, मानों उसे इसकी कुछ भी चिन्ता न थी! सन्यासीने कहा-यहाँ ऐसी कड़ी धूप और आँधीमें खड़े तुम कबतक उनकी राह देखोगे ! मेरी कुटीमें चलकर जरा विश्राम कर लो। तुन्हें परमात्माने ऐश्वर्य दिया है, लेकिन कुछ देरके लिये संन्यासाश्रमका रङ्ग भी देखो और वनस्पतियों और नदीके शीतल जलका स्वाद लो। यह कहकर संन्यासीने उस मृगके रक्तमय मृत शरीरको ऐसी सुगमतासे उठाकर कन्वेपर धर लिया मानों वह एक घासका गहा था और राजकुमारसे कहा--मैं तो प्रायः करारसे ही नीचे उतर जाया करता हूँ। किन्तु तुम्हारा घोड़ा सम्भव है न उतर सके। अतएव 'एक दिनकी राह छोड़कर ६ मासकी राह चलेगे। घाट यहासे थोड़ी ही दूर है और वही मेरी कुटी है। राजकुमार संन्यासीके पीछे चला । उसे संन्यासीके शारीरिक बलपर अचम्भा हो रहा था। आध घरटेतक दोनों चुपचाप चलते रहे। इसके बाद ढाल भूमि मिलनी शुरू हुई और थोड़ी-