पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१४१

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शिकारी राजकुमार ही देरमें घाट आ पहुँचा। वहीं कदम्ब कुखकी धनी छायामें जहाँ सर्वदा मृगोंकी सभा सुशोभित रहती, नदीकी तरङ्गोका मधुर स्वर सर्वदा सुनाई दिया करता है, जहाँ हरियालीपर मयूर थिर- कते, कपोतादि पक्षी मस्त होकर झूमते, लता द्रुमादिसे सुशोभित संन्यासीकी एक छोटी सी कुटी थी। [३] संन्यासकीकी कुटी हरे-भरे वृक्षोंके नीचे सरलता और सतोष- का चित्र बन रही थी। राजकुमारको अवस्था वहाँ पहुँचते ही बदल गयी। वहाँ शीतल वायुका प्रभाव उसपर ऐसा पड़ा जैसा मुरझाते हुए वृश्चपर वर्षाका । उसे आज विदित हुआ कि तृप्ति कुछ स्वादिष्ट व्यञ्जनोंहीपर निर्भर नहीं है और न निद्रा सुनहरे तकियोंकी ही आवश्यकता रखती है। शीवल, मन्द, सुगन्ध वायु चल रही थी। सूर्य भगवान अस्ताचलको पयान करते हुए इस लोकको तृषित नेत्रोंसे देखते जाते थे और सन्यासी एक वृक्षके नीचे बैठा हुआ गा रहा भा- 'ऊधो कर्मन की गति न्यारी' राजकुमारके कानोंमें स्वरकी भनक पड़ी, उठ बैठा और सुनने लगा। उसने बड़े बड़े कलावन्तोंके गाने सुने थे, किन्तु आज जैसा आनन्द उसे कभी प्राप्त नहीं हुआ था। इस पदने उसके ऊपर मानों मोहनीमन्त्रका जाल बिछा दिया। वह बिल्कुल बेसुध हो गया। सन्यासीकी ध्वनिमे कोयलकी कूक सरीखी मधुरता थी। सम्मुख नदीका जल गुलाबी चादरकी भाति प्रतीत होता