पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१४२

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प्रेम-पूर्णिमा था। कूलद्वयकी रेत चन्दनकी चौकी-सी दीखती थी। राजकुमार को यह दृश्य स्वर्गीय-सा जान पड़ने लगा। उसपर तैरनेवाले जल-जन्तु ज्योतिर्मय आत्माके सदृश देख पड़ते थे, जो गानेका आनन्द उठाकर मत्तसे हो गये। जब गाना समाप्त हो गया, राजकुमार जाकर सन्यासीके सामने बैठ गया और भक्ति-पूर्वक बोला-महात्मन् , आपका प्रेम और चैराग्य सराहनीय है। मेरे हृदयपर इसका जो प्रभाव पड़ा है वह चिरस्थायी रहेगा। यद्यपि सम्मुख प्रशसा करना सर्वथा अनुचित हैं, किन्तु इतना मैं अवश्य कहूंगा कि आपके प्रेमकी गम्भीरता सराहनीय है। यदि मैं गृहस्थोके बन्धनमें न पड़ा होता तो आपके चरणोसे पृथक होनेका ध्यान स्वममें भी न करता। इसी अनुरामावस्थामे राजकुमार कितनी ही बातें कह गया, जो कि स्पष्ट रूपसे उसके आन्तरिक भावोंका विरोध करती थीं। संन्यासी मुस्कराकर बोला-तुम्हारी बातोसे मै बहुव प्रसन्न हूँ और मेरी उत्कट इच्छा है कि तुमको कुछ देर ठहराऊँ, किन्तु यदि मैं जाने भी दूं तो इस सूर्यास्त के समय तुम जा नहीं सकते। तुम्हारा रीवा पहुँचना दुष्कर हो जायगा। तुम जैसे आखेटप्रिय हो वैसा ही मैं भी हूं। हम दोनोंको अपने-अपने मुण दिखाने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है। कदाचित् तम भयसे न रुकते, किन्तु शिकारके लालचसे अवश्य रहोगे। राजकुमारको तुरन्त ही मालूम हो गया कि जो बाते उन्होंने अभी-अभी संन्यासीसे कहो थी बे बिल्कुल ही ऊपरी और दिखावे की थीं और हार्दिक भाव उनसे प्रकट नहीं हुए थे। आजन्म संन्यासीके समीप रहना तो दूर, वहाँ एक रात बिताना उसको