शिकारी राजकुमार [५] राजकुमारके जीमें आया कि दो-एकको मार डालें। किन्तु संन्यासीने रोका और कहा-इन्हें छेड़ना ठीक नहीं। अगर यह कुछ उपद्रव न करें, तो भी बचकर निकल जायेंगे ! आगे चलो, सम्भव है कि इससे अच्छे शिकार हाथ आयें। तिथि सप्तमी थी। चन्द्रमा भी उदय हो आया। इन लोगोंने नदीका किनारा छोड़ दिया था। जगल भी पीछे रह गया था। सामने एक कच्ची सड़क दिखाई पड़ी और थोड़ी देरमें कुछ बस्ती भी देख पड़ने लगी। सन्यासी एक विशाल प्रासादके सामने आकर रुक गये और राजकुमारसे बोले-आओ, इस मौलसरीके वृक्षपर बैठे। परन्तु देखो, बोलना मत। नहीं तो दोनोंकी जानके लाले पड़ जायेंगे। इसमें एक बड़ा भयानक हिंस्र जीव रहता है जिसने अनगिनत जीवधारियोंका बध किया है। कदाचित् हम लोग आज इसको ससारसे मुक्त कर दे! राजकुमार बहुत प्रसन्न हुआ और सोचने लगा-चलो, रातभर की दौड़ तो सफल हुई । दोनों मौलसरीपर चढ़कर बैठ गये। राजकुमारने अपनी बन्दूक संभाल ली और शिकारकी, जिसे वह तेन्दुआ समझे हुए था, बाट देखने लगा। रात आधीसे अधिक व्यतीत हो चुकी थी। यकायक महलके समीप कुछ इलचल मालूम हुई और बैठकके द्वार खुल गये। मोमबत्तियोंके जलनेसे सारा हावा प्रकाशमान हो गया। कमरेके हर कोनेमें सुखकी सामग्री दिखाई दे रही थी। बीच में एक हष्ट- पुष्ट मनुष्य गलेमें रेशमी चादर डाले, माथेपर केसरका अर्ध-