पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१४६

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प्रेम-पूर्णिमा लम्बाकार तिलक लगाये, मसनदकै सहारे बैठा सुनहरी मुहनालसे लच्छेदार धुंआ फेक रहा था। इतनेष्टीमे उन्होंने देखा कि नत. कियोके दल-के-दल चले आ रहे हैं। उनके हाव भाव व कटाक्ष- के सर चलने लगे। समाजियोंने सुर मिलाया। गाना आरम्भ हुआ और साथ ही-साथ मद्यपान भी चलने लगा। राजकुमारने अचम्भित होकर पूछा-यह तो कोई बहुत बड़ा रईस जान पडता है। संन्यासीने उत्तर दिया-नही यह रईस नहीं हैं, एक बड़े मन्दिरके महन्त हैं, साधु हैं । ससारका त्याग कर चुके हैं । सांसा- रिक वस्तुओंकी और आँख नही उठाते, पूर्ण ब्रह्म ज्ञानकी बाते करते हैं। यह सब सामान इनकी आत्माको प्रसन्नताके लिए हैं। इन्द्रियोंको वश किये हुए इन्हें बहुत दिन हुए। सहस्रों सीधे साधे मनुष्य इनपर विश्वास करते हैं । इनको अपना देवता समझते हैं। यदि आप शिकार करना चाहते हैं तो इनका कीजिये। यही राजाओ और अधिकारियोके शिकार हैं। ऐसे रगे हुए सियारोंसे ससारको मुक्त करना आपका परम धर्म है। इससे आपकी प्रक्षाका हित होगा तथा आपका नाम और यश फैलेगा। दोनो शिकारी नीचे उतरे। सन्यासीमे कहा-अब राव अधिक बीत चुकी है। तुम बहुत थक गये होगे। किन्तु राज- कुमारों के साथ आखेट करनेका अबसर मुझे बहुत कम प्रास होता है। अतएव एक शिकारका पता और लगाकर तब लौटेगे। रहेजकुमारको इन विकारों में सच्चे उपदेशका सुख प्राप्त हो रहा था। बोला-स्वामीजी, थकनेका नाम न लीजिए । यदि में