पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१४७

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प्रेम पूर्णिमा १४६ अभी बध कर दूं। किन्तु संन्यासीजीने रोका । बोले-आन इस शिकारका.समय नहीं है। यदि आप हँ ढगे तो ऐसे शिकार बहुत मिलेंगे । मैंने इनके कुछ ठिकाने बतला दिये हैं। अब प्रातः काल होने में अधिक विलम्ब नहीं है। कुटी अभी यहाँसे दस मील होगी। आइये, शीव चलें । [७] दोनों शिकारी तीन बजते-बजते फिर कुटीमें लौट आये, उस समय बढी सुहावनी रात थी, शीतल समीरने हिला-हिलाकर वृक्षों और पत्तोंकी निद्रा भङ्ग करना आरम्भ कर दिया था। आध घयटेमें राजकुमार तैयार हो गये। संन्यासीमें अपना विश्वास और कृतज्ञता प्रकट करते हुए उनके चरणोंपर अपना मस्तक नवाया और घोड़ेपर सवार हो गये। सन्यासी ने उनकी पीठपर कृपापूर्वक हाथ फेरा। आशीर्वाद देकर बोले-राजकुमार! तुमसे भेट होनेसे मेरा चित्र बहुत प्रसन्न हुआ। परमात्माने तुम्हें अपनी सृष्टिपर राज करनेके हेतु जन्म दिया है। तुम्हारा धर्म है कि सदा प्रजा पालक बनो। तुम्हें पशुओंका वध करना उचित नहीं। इन दीन पशुओंके वध करने में कोई बहादुरी नहीं, कोई साहस नहीं, सच्चा साहस और सच्ची बहादुरी दीनोंकी रक्षा और उनकी सहायता करनेमें है, विश्वास मानों, जो मनुष्य केवल चित्तविनोदार्थ जीवहिंसा करता है वह निर्दयी घातकसे भी कठोर हृदय है। वह घातकके लिये जीविका है, किन्तु शिकारीके लिये केवल दिल बहलानेका एक सामान । तुम्हारे लिये ऐसे शिकारोंकी आवश्यकता है जिसमें तुम्हारी