पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११
ईश्वरीय न्याय
 

मे बादलोंकी नयी नयी सूरते बनती और फिर हवाके वेगसे बिगड़ जाती हैं वही दशा उस समय उनके मनसूबोंकी हो रही थी।

पर इस मानसिक अशान्तिमें भी एक विचार पूर्णरूपसे स्थिर था—किसी तरह इन कागजातको अपने हाथमें लाना चाहिए। काम कठिन है—माना, पर हिम्मत न थी तो रार क्यो मोल ली? क्या ३० हजारकी जायदाद दाल भातका कौर है।—चाहे जिस तरह हो, चोर बने बिना काम नहीं चल सकता। आखिर जो लोग चोरियाॅ करते हैं वे भी तो मनुष्य ही होते है। बस एक छलाँगका काम है। अगर पार हो गये तो राज करेगे, गिर पड़े तो जानसे हाथ धोयेगे।

[५]

रातके दस बज गये थे। मुन्शी सत्यनारायण कुञ्जियोंका एक गुच्छा कमरमें दबाये घरसे बाहर निकले। द्वारपर थोडा सा पुआल रखा हुआ था। उसे देखते ही वे चौक पड़े। मारे डरके छाती घड़कने लगी। जान पडा कि कोई छिपा बैठा है। कदम रुक गये। पुआलको तरफ ध्यानसे देखा। उसमें बिलकुल हरकत न हुई। तब हिम्मत बॉधी। आगे बढे और मनको समझाने लगा— मैं कैसा बौखल हूॅ। अपने द्वार पर किसका डर? और सड़क पर भी मुझे किसका डर है। मैं अपनी राह जाता हूॅ। कोई मेरी तरफ तिरछी ऑखसे नहीं देख सकता। हॉ जब मुझे सेंद लगाते देख ले—वहीं पकड़ ले—तब अलबत्ते डरनेकी बात है। तिसपर भी बचावकी युक्ति निकल सकती है।

अकस्मात् उन्होंने भानुकुॅवरिके एक चपरासीको आते हुए