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प्रेम-पूर्णिमा
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देखा। कलेजा धड़क उठा। लपककर एक अन्धेरी गलीमे घुस गये। बड़ी देरतक वहॉ खडे रहे। जब वह सिपाही ऑखोंसे ओझल हो गया तब फिर सडकपर आये। वह सिपाही आज सुबहतक इनका गुलाम था, उसे इन्होंने कितनी बार गालियाँ दी थी, लाते भी मारी थी। पर अभी उसे देखकर उनके प्राण सूख गये।

उन्होंने फिर तर्ककी शरण ली। मै मानो भंग खाकर आया हूॅ। इस चपरासीसे इतना डरा, माना कि वह मुझे देख लेता, पर मेरा कर क्या सकता था। हजारों आदमी रास्ता चल रहे हैं। उन्हीमे एक मै भी हूॅ। क्या वह अन्तर्यामी है? सबके हृदय का हाल जानता है? मुझे देखकर वह अदबसे सलाम करता और वहॉका कुछ हाल भी कहता, पर मैं उससे ऐसा डरा कि सूरत तक न दिखायी। इस तरह मनको समझाकर वे आगे बढ़े। सच है, पापके पंजोंमें फॅसा हुआ मन पतझड़का पत्ता है, जो हवाके जरासे झोंकेसे गिर पड़ता है।

मुन्शीजी बाजार पहुँचे। अधिकतर दूकानें बन्द हो चुकी थीं। उनमें सॉड़ और गाये बैठी हुई जुगाली कर रही थी। केवल हलवाइयोंकी दूकानें खुली थी और कहीं-कहीं गजरेवाले हारकी हॉक लगाते फिरते थे। सब हलबाई मुन्शीजीको पहचानते थे। अतएव, मुन्शीजीने सिर झुका लिया। कुछ चाल बदली और लपकते हुए चले। यकायक उन्हें एक बग्घी आती दिखायी दी। यह सेठ बल्लभदास वकीलकी बग्घी थी। इसमें बैठकर हजारों बार सेठजीके साथ कचहरी गये थे, पर आज यह बग्धी काल- देवके समान भयकर मालूम हुई। फौरन एक खाली दुकानपर