पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१५०

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बलिदान हरखूको विश्वास हो गया कि अब ससारसे चलनेके दिन आ गये। एक दिन मङ्गलसिंह उसे देखने गये, बैंचारा टूटी खाटपर पडा राम नाम जप रहा था । मङ्गलसिहने कहा-बाबा, बिना दवा खाये अच्छा न होगे; कुनैन क्यो नही खाते ?" हरखूने उदासीन भावसे कहा-तो लेते आना। दूसरे दिन कालिकादीनने आकर कहा-बाबा, दो चार दिन कोई दवा खा लो । अब तुम्हारी जवानीकी देह थोड़े है कि बिना दवा दर्पणके अच्छे हो जाओगे। हरखूने उसी मन्द भावसे कहा---'तो लेते आना। लेकिन रोगीको देख आना एक बात है, दवा लाकर उसे देना दूसरी बात है। पहली बात शिष्टाचारसे होती है, दूसरी सच्ची समवेदना- से । न मगलसिंहने खबर ली;न कालिकादीनने, न किसी तीसरे हीने । हरखू दालानमें खाटपर पड़ा रहता। मङ्गलसिह कमी नजर आ जाते तो कहा-मैया, वह दवा नहीं लाये ? मङ्गलसिह कतराकर निकल जाते। कालिकादीन दिखाई देते तो उनसे भी यही प्रश्न करता। लेकिन यह भी नजर बचा जाते। या तो उसे यह सूसता ही नहीं था कि दवा पैसोंके बिना नहीं आती, या वह पैसोको जानसे भी प्रिय समझता था, अथवा वह जीवनसे निराश हो गया था। उसने कभी दवाके दामकी बात नहीं की। दवा न आयी। उसकी दशा दिनोंदिन बिगड़ती गई। यहॉतक कि पाँच महीने कष्ट भोगने के बाद उसने ठीक होलीके दिन शरीर त्याग दिया। गिरधारीने उसका शव बड़ी धूमधामके साथ निकाला। क्रिया-कर्म बड़े हौसलेसे किया। कई गाँवके ब्राह्मणोंको निमन्त्रित किया।