पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१५३

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प्रेम पूर्णिमा जाता है। बड़े दिनमें सैकड़ों रुपये खालियोंमें उड़ जाते हैं। जिसे डाली न दो वही मुंह फुलाता है। जिन चीजों के लिए लड़के तरस कर रह जाते हैं उन्हें बाहरसे मॅगाकर डालियोंमें सजाता हूँ। उसपर कमी कानूनगो आ गये, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी साहबका लश्कर आ गया। सब मेरे मेहमान होते हैं। अगर न करूं तो नक्कू बनू और सबको ऑखोंमें काटा बन जाऊँ। सालमें हजार बारह सौ मोदीको इसी रसद खुराकके मदमें देने पड़ते हैं। यह सब कझसे आवे? बस, यही जी चाहता है कि छोड़कर निकल जाऊँ। लेकिन हमें तो परमात्मा ने इसीलिये बनाया है कि एकसे रुपया सताकर ले और दूसरेको रो रोकर दे, यही हमारा काम है। तुम्हारे साथ इतनी रिआयत कर रहा हूँ। लेकिन तुम इतनी रिआयतपर भी खुश नहीं होते तो हरि इच्छा । नजराने में एक पैसेको भी रियायत न होगी। अगर एक हफ्तेके अन्दर रुपये दाखिल करोगे तो खेत जोतने पाओगे नहीं तो नहीं, मैं कोई दूसरा प्रबन्ध कर दूंगा। [३] गिरधारी उदास और निराश होकर घर आया । १००) का प्रबन्ध करना उसके काबूके बाहर था। सोचने लगा, अगर दोनों बैल येच दूं तो खेत ही लेकर क्या करूगा ? घर बेचूँ वो वहाँ लेनेवाला ही कौन है? और फिर बाप-दादोंका नाम डूबता है। चार-पाँच पेड़ हैं, लेकिन उन्हें बेचकर २५) या ३०) से अधिक न मिलेगे। उधार लू दो-देता कौन है! अभी बनियेके ५०) सिरपर चढ़े हैं। वह एक पैसा भी नदेगा। घरमें गहने भी