पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बलिंदान तो नही है। नहीं उन्हींको बेचता । ले देकर एक सिली बमवाई थी, वह भी बनियेके घर पड़ी हुई है। सालभर हो गया, छुड़ाने- की नौबत न आयी। गिरधारी और उसकी स्त्री सुभागी दोनों ही इसी चिन्तामें पड़े रहते, लेकिन कोई उपाय न सूझता था। गिरधारीको खाना पीना अच्छा न लगता, रातको नींद न आती। खेतोंके निकलनेका ध्यान आते ही उसके हृदय में एक सी उठने लगती। हाय! वह भूमि जिसे हमने वर्षों जोता, जिसे खादसे पाटा, जिसमें भेड़े रक्खी, जिसकी मेड़ बनाई उसका मजा अब दूसरा उअवेगा। वे खेत गिरधारीके जीवनका अश हो गये थे। उनकी एक. एक अगुल सूमि उसके रक्तसे रॅगी हुई थी। उनका एक एक ‘परमाणु उसके पसीनेसे तर हो रहा था। उनके नाम उसकी जिह्वापर उसी तरह आते थे जिस तरह अपने तीनों बच्चोंके। कोई चौबीसो था, कोई बाईसो था, कोई नालेवाला, कोई तलैयावाला। इन नामोंके स्मरण होते ही खेतों- का चित्र उसकी ऑखोंके सामने खिंच जाता था। वह इन खेतोंकी चर्चा इस तरह करता मानों वे सजीव हैं। मानों उसके मले बुरेके साथी हैं। उसके जीवनकी सारी आशायें, सारी इच्छायें सारे मनसूबे, सारी मनकी मिमइयों, सारे हवाई किले, इन्हीं खेतोंपर अवलम्बित थे। इनके बिना वह जीवनकी कल्पना ही नहीं कर सकता था और वे ही अब हाथसे निकले जाते हैं, वह घबराकर परसे निकल जाता और घटों उन्हीं खेतोकी मेड़ों पर बैठा हुआ रोता, मानों उनसे विदा हो रहा है । इस तरह एक सप्ताह बीत गया और गिरधारी रुपयेका कोई बन्दोबस्त न कर