पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१५५

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प्रेम-पूर्णिमा सका। आठवें दिन उसे मालूम हुआ कि कालिकादीनने १००) नजराने देकर १०) बीघेपर खेत ले लिये। गिरधारीने एक उपढी सस ली। एक क्षणके बाद वह अपने दादाका नाम लेकर विलख विलखकर रोने लगा । उस दिन घरमें चूल्हा नहीं जला। ऐसा मालूम होता था मानों हरखू आज ही मरा है [४] लेकिन सुभागी यों चुपचाप बैठनेवाली स्त्री न थी। वह क्रोधसे भरी हुई कालिकादीनके घर गयी और उसकी स्त्रीको खूब लथेडा, कलका बानी आजका सेठ, खेत जोतने चले हैं। देखें कौन मेरे खेतमें हल ले जाता है ! अपना और उसका लोहू एक कर दूं। पड़ोसियोंने उसका पक्ष लिया, सब तो है, आपसमें यह चढा ऊपरी नही चाहिए । नारायणने धन दिया है, तो क्या गरीबोंको कुचलते फिरेंगे ? सुभागीने समझा, मैंने मैदान मार लिया। उसका चित्त बहुत शान्त हो गया। किन्तु वही वायु जो पानीमें लहरे पैदा करती है, वृक्षोंको जडसे उखाड़ अलती है। सुभागी तो पडोसियोकी पञ्चायतमें अपने दुखड़े रोती और कालिकादीनकी स्त्रीसे छेड छेड लड़ती। इधर गिरधारी अपने द्वारपर बैठा हुआ सोचता, अब मेरा क्या हाल होगा ? अब यह जीवन कैसे कटेगा ? ये लड़के किसके द्वारपर जायँगे मजदूरीका विचार करते ही उसका हृदय व्याकुल हो जाता। इतने दिनों तक स्वाधीनता और सम्मानका सुख भोगनेके बाद अधम चाकरी- की शरण लेनेके बदले वह मर जाना अच्छा समझता था। वह अबतक गृहस्थ था, उसकी गणना गॉवके भले आदमियोमे यी,