पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उसे गाँवके मामलेमें बोलनेका अधिकार था। उसके घरमें धन न था। पर मान था। नाई, बढई, कुम्हार, पुरोहित, भाट, चौकीदार ये सब उसका मुंह ताकते थे। अब यह मर्यादा कहाँ ? अब कौन उसकी बात पूछेगा ? कौन उसके द्वारपर आयेगा ! अब उसे किसीके बराबर बैठनेका, किसीके बीचमे बोलनेका इक नहीं रहा । अब उसे पेटके लिये दूसरों की गुलामी करनी पड़ेगी। अब पहर रात रहे कौन बैलोंको नादमे लगावेगा। वह दिन अब कहाँ, जब गीत गा गाकर हल चलाता था। चोटीका पसीना ऍडी तक आता था, पर जरा भी थकावट न आती थी । अपने लहलहाते हुए खेतोंको देखकर फूला न समाता था । खलिहान में अनाजका ढेर सामने रक्खे हुए अपनेको राजा समझता था। अब अनाजके टोकरे भर-भरकर कौन लावेगा? अब खत्त कहाँ बखार कहाँ? यही सोचते सोचते गिर धारीकी ऑखोंसे आँसूको झड़ी लग जाती थी। गाँवके दो-चार सज्जन, जो कालिकादीनसे जलते थे, कभी कभी गिरधारीको तसल्ली देने आया करते थे, पर वह उनसे भी खुलकर न बोलता। उसे मालूम होता था कि मै सबकी नजरों में गिर गया हूँ। अगर कोई समझाता कि तुमने क्रिया कर्ममे व्यर्थ इतने रुपये उड़ा दिये, तो उसे बहुत दुःख होता। वह अपने उस कामपर जरा भी न पछताता। मेरे भाग्यमे जो लिखा है वह होगा, पर दादाके ऋणसे तो उऋण हो गया। उन्होने अपनी जिन्दगीमें चारको खिलाकर खाया। क्या मरनेके पीछे उन्हें पिण्डे-पानोको तरसाता। इस प्रकार तीन मास बीत गये और आसाढ़ आ पहुँचा ।