पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१५७

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प्रेम-पूर्णिमा "आकाशमें घटाये आयी, पानी गिरा, किसान हल जुए ठीक करने लगे । बढई हलोंकी मरम्मत करने लगा। गिरधारी पागलकी तरह कभी घरके भीतर जाता, कमी बाहर आता, अपने हलोंको निकाल देखता, इसकी मुठिया टूट गयी है ; इसकी फाल ढीली हो गयी है, जुए में सैला नहीं है। यह देखते-देखते वह एक क्षण अपनेको भूल गया । दौड़ा हुआ बटईके यहाँ गया और बोला- रज्जू, मेरे हल भी बिगडे हुए हैं, चलो बना दो।' रज्जूने उसकी ओर करुणा भावसे देखा और अपना काम करने लगा। गिरधारीको होश आ गया, नीदसे चौंक पड़ा, ग्लानिसे उसका सिर झुक गया, ऑखें भर आयी। चुपचाप घर चला आया। गॉवमें चारों ओर हलचल मची हुई थी! कोई सनके बीज खोजता फिरता था, कोई जमीदारके चौपालसे धानके बीज लिये आता था, कही सलाह होती, किस खेतमें क्या बोना चाहिये, कहीं चर्चा होती थी कि पानी बहुत बरस गया, दो चार दिन ठहरकर बोना चाहिये। गिरधारी ये बाते सुनता और जलहीन मछलीकी तरह तड़पता था । एक दिन सन्ध्या समय गिरधारी खड़ा अपने बैलोंको खुजला रहा था कि मङ्गलसिंह आये और इधर उधरकी बातें करके बोले-गोई को बाँधकर कबतक खिलाओगे ? निकाल क्यों नहीं देते? गिरधारीने मलिन भावसे कहा-हाँ कोई गाहक आवे तो निकाल दूं।