पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रेम पूर्णिमा १५८ गिरधारी बेलोंके पास विषादमय नेत्रोंसे उनके मुंहकी ओर ताक रहा था। आह। यह मेरे खेतोंके कमानेवाले, मेरे जीवन के आधार, मेरे अन्नदाता, मेरी मान मर्यादाकी रक्षा करनेवाले, जिनके लिये पहर रातसे उठकर छाटी काटता था जिनके खलो. दानेकी चिन्ता अपने खानेसे ज्यादा रहती थी, जिनके लिये सारा घर दिनभर हरियाली उखाड़ा करता था। ये मेरी आशाकी दो ऑख, मेरे इरादेके दो तारे, मेरे अच्छे दिनोंके दो चिह्न, मेरे दो हाथ, अब मुझसे विदा हो रहे हैं। जब मगलसिहने रुपये गिनकर रख दिये और बैलोको ले चले, तब गिरधारी उनके कन्धोपर सिर रखकर खूब फूट फूटकर रोया। जैसे कन्या मायकेसे विदा होते समय मॉ-बापके पैरोको नहीं छोड़ती, उसी तरह गिरधारी इन बैलोको न छोड़ता था। सुभागी भी दालानमे खड़ी रो रही थी और छोटा लड़का मगल सिहको एक बाँसकी छड़ीसे मार रहा था। रातको गिरधारीने कुछ नहीं खाया। चारपाईपर पड़ रहा । प्रात:काल सुभागी चिलम भरकर ले गयी तो वह चारपाईपर न था। उसने समझा कहीं गये होंगे। लेकिन जब दो-तीन घड़ी दिन चढ़ आया और वह न लौटा तो उसने रोना-धोना शुरू किया। गाँवके लोग जमा हो गये, चारों ओर खोज होने लगी, पर गिरधारीका पता न चला। [६] सन्ध्या हो गयी थी। अन्धेरा छा रहा था। सुभागीने दिया जलाकर गिरधारीके सिरहाने रख दिया था और बैठी द्वारकी