पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१६२

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बोध फैसे। यदि किसी अन्य विभागमें नौकर होते तो अबतक हाथमें चार पैसे होते, आयमसे जीवन व्यतीत होता । यहाँ तो महीने भर प्रतीक्षा करनेके पीछे कहीं पन्द्रह रुपये देखनेको मिलते हैं। वह भी इधर आये, उधर गायब । न खानेका सुख, न पहननेका आराम । हमसे तो मजूर ही भले । पशिडतजीके पड़ोसमें दो महाशय और रहते थे। एक अकुर अतिबलसिंह, वह थानेमें हेड कान्सटेबल थे। दूसरे, मुशी बैजनाय, वह तहसीलमें सियाहेनबीस थे। इन दोनों आदमियोंका वेतन पण्डितजीसे कुछ अधिक न था, तब भी उनकी चैनसे गुजरती थी। सन्ध्याको वह कचहरीसे आते बच्चोंको पैसे और मिठाइयाँ देते। दोनों आदमियोंके पास टहलुवे थे। घरमें कुरसिया, मेजे, फर्श आदि सामनियाँ मौजूद थी। अकुर साहब शामको आराम कुरसीपर लेट जाते और खुशबूदार खमीरा पीते। मुन्शीजीको शराब कबाबका व्यसन था। अपने सुसज्जित कमरेमे बैठे हुए बोतल की बोतल साफ कर देते। जब कुछ नशा होता तो हारमोनियम बजाते, सारे मुहल्लेमें उनका रोबदाब था। उन दोनो मक्षशयोको आते देखकर बनिये उठकर सलाम करते। उनके लिये बाजारमें अलग-भाव था। चार पैसे सेरकी चीज टके सेरमें लाते। लकड़ी ईधन मुफ्तमें मिलता। पण्डितजी उनके इस डाट बाटको देखकर कुढ़ते और अपने भाग्यको कोसते । वह लोग इतना भी न जानते थे कि पृथ्वी सूर्यका चक्कर लगाती है अथवा सूर्य पृथ्वीका। साधारण पहाड़ोंका भी ज्ञान न था, तिसपर भी ईश्वरने उन्हे इतनी प्रभुता दे रखी थी। यह लोग परिडतजीपर बड़ी कृपा