पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१६४

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बोध [२] एक बार सावनके महीनेमे मुन्शी बैजनाथ और ठाकुर अति- बलसिंहने श्रीअयोध्याजीकी यात्राकी सलाह की। दूरकी यात्रा थी। हफ्तों पहलेसे तैयारियों होने लगी। बरसातके दिन, सप रिवार जानेमे अडचन थी। किन्तु स्त्रियों किसी भाति न मानतो थी। अन्त में विवश होकर दोनों महाशयोंने एक-एक सप्ताहकी छुट्टी ली और अयोध्याजी चले। पण्डितजीको भी साथ चलनेके लिये वाध्य किया। मेले ठेलेमे एक फालतू आदमीसे बडे काम निकलते हैं । पण्डितजी असमजसमे पड़े, परन्तु जब उन लोगोंने उनका व्यय देना स्वीकार किया तो इन्कार न कर सके और अयोध्याजीकी यात्राका ऐसा सुअवसर पाकर न रुक सके। बिल्हौरसे एक बजे रातको गाडी छूटती थी। यह लोग खा पीकर स्टेशनपर आ बैठे। जिस समय गाडी आयी, चारों ओर भगदड सी पड गयी। हजारो यात्री जा रहे थे। उस उतावलीमे मुन्धीजी पहले निकल गये। पण्डितजी और ठाकुर साहब साथ थे। एक कमरे में बैठे। इस आफतमे कौन किसका रास्ता देखता है। गाडियोमें जगहकी बड़ी कमी थी, परन्तु जिस कमरेमे ठाकुर साहब थे, उसमें केवल चार मनुष्य थे। वह सब लेटे हुए थे। अकुर साहब चाहते थे कि वह उठ जाय तो जगह निकल आवे। उन्होंने एक मनुष्यसे डॉटकर कहा-उठ बैठो जी, देखते नहीं इम लोग खड़े हैं। भुसाफिर लेटे-लेटे बोला-क्यों उठ बैठे जी ? कुछ तुम्हारे बैठनेका ठेका लिया है।