पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१६८

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बोध बस्टर कहा करते थे। सब वृचान्त सुनकर रुखाईसे बोले- सवेरेके समय मुझे बाहर जानेकी आशा नही है। दारोगा तो क्या मुन्शीजीको यहीं लायें। चोखेलाल-हॉ आपका जी चाहे लाइये। दारोगाजीने दौड़-धूपकर एक डोलीका प्रबन्ध किया । मुन्शी- बीको लादकर अस्पताल लाये । ज्यों ही यरामदेमें पैर रखा, चोखेलालने डाँटकर कहा-हैजे (विसूचिका) के रोगीको ऊपर लानेको आश नहीं है। बैजनाथ अचेत तो थे नही, आवाज सुनी, पहचाना । धीरेसे बोले-अरे यह तो बिल्हौर हीके हैं, भला सा नाम है। तहसील मे आया जाया करते हैं। क्यों महाशय ! मुझे पहचानते हैं ? चोखेलाल-जी हॉ, खूब पहचानता हूँ। बैजनाथ-~-पहचानकर भी इतनी निठुरता। मेरी जान निकल रही है। जरा देखिये मुझे क्या हो गया! चोखेलाल-हॉ, यह सब कर दूंगा और मेरा काम ही क्या है ? फीस? दरोगाजी-अस्पतालमें कैसी फीस जनाब मन ? चोखेलाल-वैसी ही जैसी इन मुन्शीजीने मुझसे वसूल की थी जनाब मन। दारोगाजी-आप क्या कहते हैं, मेरी समझमें नहीं आता। चोखेलाल-मेरा घर बिल्हौरमे है। वहाँ मेरी थोडीसी अमीन है। साल में दो बार उसकी देख भालके लिये जाना पड़ता है । जब तहसीलमे लगान दाखिल करने जाता हूँ तो मुन्धीजी बॉटकर अपना हक वसूल कर लेते हैं। भहूँ तो शामतक खड़ा