पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१६९

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प्रेम पूर्णिमा रहना पड़े। स्याहा न हो। फिर जनाब कभी गाड़ी नावपर, कमी नाव गाड़ीपर | मेरी फीसके दस रुपये निकालिये। देखू, दवा दूं, नहीं तो अपनी राह लीजिये दारोगा-दस रुपये! चोखेलाल-जी हॉ, और यहाँ ठहरना चाहें तो दस रुपये रोज। दारोगाजी विवश हो गये। बैजनाथकी स्त्रीसे रुपये मागे। तब उसे अपने बक्सकी याद आयी ! छाती पीट ली। दारोगाजी के पास भी अधिक रुपये नही थे, किसी तरह दस रुपये निकाल कर चोखेलालको दिये। उन्होंने दवा दी। दिनभर कुछ फायदा न हुआ। रालको दशा संभली । दूसरे दिन फिर दवाकी आव- श्यकता हुई। मुन्धियाइनका एक गहना जो २०) से कमका न था बाजारमें बेचा गया। तब काम चला। शामतक मुन्धीजी चंगे हुए । रातको माडीपर बैठकर अयोध्या चले। चोखेलालको दिलमें खूब गालियाँ दी। [४] श्री अयोध्याजीमें पहुँचकर स्थानकी खोज हुई । पण्डोंके घर जगह न थी। घर घरमें आदमी भरे हुए थे। सारी बस्ती छन मारी, पर कहीं ठिकाना न मिला। अन्तमें यह निश्चय हुआ कि किसी पेड़ के नीचे डेरा जमाना चाहिये। किन्तु जिस पेड़के नीचे जाते थे, वहीं यात्री पड़े मिलते । सिवाय खुले मैदानमें रेतपर पड़ रहनेके और कोई उपाय न था। एक स्वच्छ स्थान देख- कर विस्तरे बिछाये और लेटे। इतनेमें बादल घिर आये। बूंदे गिरने लगी। बिजली चमकने लगी। गरजसे कानके परदे