पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१७०

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सचाईका उपहार फटे जाते थे। लड़के रोते थे, स्त्रियोंके कलेजे काँप रहे थे । अब यहाँ ठहरना दुस्सह था, पर जायें कहाँ। अकस्मात् एक मनुष्य नदीकी तरफसे लालटेन लिये आता हुआ दिखाई दिया, वह निकट पहुँचा तो पण्डितजीने उसे देखा । आकृति कुछ पहचानी हुई मालूम हुई, किन्तु यह विचार न आया कि कहाँ देखा है। पास जाकर बोले- क्यों भाई साहब । यहॉ यात्रियोंके ठहरनेके लिये जगह न मिलेगी वह मनुष्य रुक गया। पण्डितजीकी ओर ब्यानसे देखकर बोला- आप परिडत चन्द्रधर तो नहीं हैं। पण्डितजी प्रसन्न होकर बोले-जी हाँ। आप मुझे कैसे जानते हैं। उस मनुष्यने सादर पण्डित जीके चरण छुए और बोला-मैं आपका पुराना शिष्य हूँ। मेरा नाम कृपाशङ्कर है। मेरे पिता कुछ दिनों बिल्हौरमें डाक मुन्धी रहे थे। उन्हीं दिनों में आपकी सेवामें पढता था। पंडितजीकी स्मृति जागी। बोले-ओहो तुम्ही हो कृपाशंकर। तब तो तुम दुबले पतले लड़के थे, कोई आठ नौ साल हुए होंगे। कृपाशंकर-जी हाँ, नवौँ साल है । मैंने वहासे आकर इन्ट्रेस पास किया, अब यहाँ म्युनिसिपलिटीमें नौकर हूँ। कहिये आप तो अच्छी तरह रहे । सौभाग्य था कि आपके दर्शन हो गये। पण्डितजी-मुझे भी तुमसे मिलकर बड़ा आनन्द हुआ। तुम्हारे पिता अब कहाँ हैं। कृपाशङ्कर--उनका तो. देहान्त हो गया। मावा जी हैं। भाप यहाँ कब आये?