पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रेम-पूर्णिमा पण्डितजी-आज ही आया हूँ। परडोके घर जगछन मिली। विवश हो यहीं रात काटनेको ठहरी। कृपाशङ्कर-बाल बच्चे भी साथ हैं ? पण्डितजी-नही, मै तो अकेले ही आया हूँ, पर मेरे साथ दारोगाजी और सियाहेनबीस साहब हैं-उनके बाल-बच्चे भी कृपाशङ्कर-कुल कितने मनुष्य होंगे। पण्डितजी-है तो दस, किन्तु थोड़ी सी जगहमें निर्वाह कर लेगे। कृपाशङ्कर-नही साहब बहुत-सी जगह लीजिये। मेरा बड़ा मकान खाली पड़ा है। चलिये आराममे एक, दो, वीन दिन रहिये । मेरा परम सौभाग्य है कि आपकी कुछ सेवा करनेका अवसर मिला। कृपाशङ्करने कई कुली बुलाये। असबाब उठवाया और सबको अपने मकानपर ले गया। साफ सुथरा घर था। नौकरने चटपट चारपाइयाँ बिछा दी। घरमें पूरियाँ पकने लगीं। कृपा- शङ्कर हाथ बाथे सेवककी भाति दौड़ता था। हृदयोल्लाससे उसका मुखकमल चमक रहा था। उसकी विनय और नम्रताने सबको मुग्ध कर लिया। और सब लोग तो खा पीकर सोये, किन्तु पण्डित चन्द्रधर- को नीद नहीं आयी। उनकी विचार-शक्ति इस यात्राको घट. नाओंका उल्लेख कर रही थी। रेलगाड़ीकी रगड़ झगड़ और चिकित्सालयकी मोम्ब-खसोटके सम्मुख कृपाशङ्करकी सहृदयता और शालीनता प्रकाशमय दिखाई देती थी। पण्डितजीने आज