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प्रेम पूर्णिमा
१४
 

लालटेनके पास गये और जिस तरह बिल्ली चूहेपर झपटती है उसी तरह उन्होंने झपटकर लालटेनको बुझा दिया। एक पड़ाव पूरा हो गया; पर वे उस कार्यको जितना दुष्कर समझते थे उतना न जान पड़ा। हृदय कुछ मजबूत हुआ। दफ्तरके बरामदेमें पहुॅचे और खूब कान लगाकर आहट ली। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। केवल चमारोंका कोलाहल सुनाई देता था। इस समय मुन्शीजीके दिल में धड़का न था, पर सिर धम-धम कर रहा था, हाथ पाँव कॉप रहे थे, सॉस बड़े वेगसे चल रही थी, शरीरका एक-एक रोम आँख और कान बना हुआ था। वे सजीवताकी मूर्ति हो रहे थे। उनमें जितना पौरुष, जितनी चपलता, जितना साहस, जितनी चेतनता, जितनी बुद्धि; जितना औसान था, वे सब इस वक्त सजग और सचेत होकर इच्छा शक्तिकी सहायता कर रहे थे।

दफ्तरके दरवाजेपर वही पुराना ताला लगा हुआ था। इसकी कुञ्जी आज बहुत तलाश करके वे बाजारसे लाये थे। ताला खुल गया, किवाड़ोंने बहुत दबी जबानसे प्रतिरोध किया, पर इसपर किसीने ध्यान न दिया। मुन्शीजी दफ्तरमें दाखिल हुए। भीतर चिराग जल रहा था। मुन्शीजीको देखकर उसने एक दफे सिर हिलाया। मानो उन्हें भीतर आनेसे रोका।

मुन्शीजीके पैर थर थर कॉप रहे थे। एड़ियाॅ जमीनसे उछली पड़ती थीं। पापका बोझ उन्हें असह्य था।

पलभर में मुन्शीजीने बहियोंको उलटा पलटा, लिखावट उनकी ऑखोंमें तैर रही थी। इतना अवकाश कहाँ था कि जरूरी कागजात छाॅट लेते। उन्होंने सारी बहियोंको समेटकर एक बड़ा