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ईश्वरीय न्याय
 

गट्ठर बनाया और सिरपर रखकर तीरके समान कमरेसे बाहर निकल आये। उस पापकी गठरीको लादे हुए वह अन्धेरी गलीमें गायब हो गये।

तग, अन्धेरी, दुर्गन्धिपूर्ण, कीचडसे भरी हुई गलियोंमें वे मंगे पॉव, स्वार्थ, लोभ और कपटका वह बोझ लिये चले जाते थे। मानो पापमय आत्मा नरककी नालियों में बही जाती थी।

बहुत दूरतक भटकने के बाद वे गङ्गाके किनारे पहुॅचे। जिस तरह कलुषित हृदयोंमे कही-कहीं धर्मका धुँधला प्रकाश रहता है उसी तरह नदीकी सतहपर तारे झिलमिला रहे थे। तटपर कई साधु धूनी रमाये पड़े थे। ज्ञानकी ज्वाला मनकी जगह बाहर दहक रही थी। मुन्शीजीने अपना गट्ठर उतारा और चादरखूब मजबूत बॉधकर बलपूर्वक नदीमें कूद दिया। सोती हुई लहरोंमे कुछ हलचल हुई और फिर सन्नाटा हो गया।

[६]

मुन्शी सत्यनारायणके घर में दो स्त्रियाॅ थीं—माता और पत्नी। वे दोनो अशिक्षिता थीं। तिसपर भी मुन्शीजीको गङ्गामें डूब मरने था कहीं जानेकी जरूरत न होती थी। वे बॉड़ी पहनती थी, न मोजे जूते, न हारमोनियमपर गा सकती थी। यहाँतक कि उन्हें साबुन लगाना भी न आता था। हेयर पिन, ध्रु चेल और जाकेट आदि परमावश्यक चीजोंका तो उन्होंने नाम भी नहीं सुना था। बहूमें आत्म-सम्मान जरा भी नहीं था, न सासमें आत्म गौरवका जोश। बहू अबतक सासकी घुड़कियाँ भीगी बिल्लीकी तरह सह लेती थी—हा मूर्खे! सासको बच्चेके नहलाने-धुलाने,