पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१८०

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सचाईका उपहार जगतसिंह-तुम्हें अबकी जरूर वजीफा मिलता। जयराम---हॉ मैने बहुत परिश्रम किया था। तो फिर ? जगतसिंह- कुछ नही तरको तो हो ही जायगी। वजीफेसे हाथ धोना पड़ेगा। जयराम-बाजबहादुरके हाथ लग जायगा । जगतसिंह-बहुत अच्छा होगा, बेचारेने मार भी तो खायी है। दूसरे दिन भदरसा लगा। जगतसिंह, जयराम और शिवराम तीनों गायब थे। वलीमहम्मद पैरमे पट्टी बाँधे आये थे, लेकिन भय के मारे बुरा हाल था, कलके दर्शकगण भी थरथरा रहे थे कि कही हमलोग भी गेहूँ के साथ धुनकी तरह न पिस जायें। बाजबहादुर नियमानुसार अपने काममे लगा हुआ था। ऐसा मालूम होता था कि मानों उसे कलकी बातें याद ही नहीं हैं। किसीसे उनको चर्चा न की। हॉ, आज वह अपने स्वभावके प्रति- कूल कुछ प्रसन्नचित्त देख पड़ता था। विशेषतः कलके योद्धाओं से वह अधिक हिलामिला हुआ था। वह चाहता था कि यह लोग मेरी ओरसे निम्शक हो जायें। रातभरकी विवेचनाके पश्चात् उसने यही निश्चय किया था और आज जब सन्ध्या समय वह घर चला तो उसे अपनी उदारताका फल मिल चुका था। उसके शत्रु, लञ्चित थे और उसकी प्रशसा करते थे। मगर यह तीनो अपराधी दूसरे दिन भी न आये, तीसरे दिन भी उनका कही पता न था। वह घरसे मदरसेको चलते लेकिन देहातकी तरफ निकल जाते। वहाँ दिन भर किसी वृक्ष के नीचे बैठे रहते, अथवा गुल्ली एडे खेलते । शामको घर चले आते।