पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सचाईका उपहार सचाई की सजा दी थी, आज झूठका इनाम दे देना। जयराम-सच कहते हो तुमने शिकायत नहीं की? बाजबहादुर-शिकायतकी कौन बात थी। तुमने मुझे मारा, मैंने तुम्हे मारा । अगर तुम्हारा घूसा न पड़ता तो मैं तुम लोगों को रणक्षेत्रसे भगाकर दम लेता। आपसके झगड़ोंकी शिकायत करनेकी मेरी आदत नहीं है। जगतसिह-चलू तो यार, लेकिन विश्वास नहीं आता, तुम हमें झासे दे रहे हो, कचूमर निकलवा लोगे । बाजबहादुर-तुम जानते हो सूठ बोलनेकी मेरी बान यह शब्द बाजबहादुरने ऐसी विश्वासोत्पादक रीतिसे कहे कि उन लोगोंका भ्रम दूर हो गया । बाजबहादुरके चले जानेके पश्चात् तीनों देर तक उसकी बातोकी विवेचना करते रहे। अन्तमें यही निश्चय हुआ कि आज चलना चाहिये। ठीक दस बजे तीनों मित्र मदरसे पहुँच गये, किन्तु चित्तमें आशंकित थे । चेहरेका रङ्ग उड़ा हुआ था । मुन्शीजी कमरे में आये | लड़कोंने खड़े होकर उनका स्वागत किया, उन्होंने तीनों मित्रोंकी ओर तीन दृष्टि से देखकर केवल इतना कहा--तुम लोग तीन दिनसे गैरहाजिर हो। देखो दरजेमें जो इम्तहानी सवाल हुए हैं उन्हें नकल कर लो। फिर पढ़ानेमें मन्न हो गये। जब पानी पीनेके लिये लड़कोंको आध घटेका अवकाश