पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१८४

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प्रेम पूर्णिमा १८४ एक दिन मैं चारपाईपर लेटा हुआ एक पत्र पढ़ रहा था कि मुझे एक मॉग अपनी इच्छाके अनुसार दिखाई दी। किसी रईस. को एक ऐसे प्राइवेट सेक्रटरीकी जरूरत थी जो विद्वान् , रसिक, सहृदय और रूपवान हो। वेतन एक हजार मासिक ! मैं उछल पड़ा । कहीं मेरा माग्य उदय हो जाता और यह पद मुझे मिल जाता तो जिन्दगी चैनसे कट जाती। उसी दिन मैंने अपना विनयपत्र अपने फोटोके साथ रवाना कर दिया, पर अपने आत्मीय गणोंमें किसीसे इसका जिक्र न किया कि कहीं लोग मेरी हसी न उड़ाये। मेरे लिये ३०) मासिक भी बहुत थे। एक हजार कौन देगा ? पर दिलसे यह ख्याल दूर न होता। बैठे बैठे शेख चिल्लीके मन्सूबे बॉधा करता | फिर होशमें आकर अपनेको समझाता कि मुझमें ऐसे ऊँचे पदके लिए कौन सी योग्यता है। मै अभी कालेजसे निकला हुआ पुस्तकोंका पुतला हूँ । दुनियाँस बेखबर ! इस पद के लिए एक-से-एक विद्वान, अनु- भवी पुरुष मुँह फैलाये बैठे होंगे। मेरे लिये कोई आया नहीं। मैं रूपवान सही, सजीला सही, मगर ऐसे पदोंके लिये केवल रूपवान होना काफी नहीं होता । विज्ञापनमें इसकी चर्चा करनेसे केवल इतना अभिप्राय होगा कि कुरूप आदमीकी जरूरत नहीं, और उचित भी है। बल्कि बहुत सजीलापन तो ऊँचे पदोंके लिये कुछ शोभा नहीं देता। मध्यम श्रेणीका तोंद, भरा हुआ शरीर, फूले हुए गाल और गौरवयुक वाक्य शैली यह उच्चाद- धारियोंके लक्षण है और मुझे इनमेंसे एक भी मयस्सर नहीं। इसी आशा और भयमें एक सप्ताह गुजर गया और अब मैं निराश हो गया। मैं भी कैसा ओज हूँ कि एक बे सिर-पैर की।