पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१८६

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प्रेम पूर्णिमा १८६ करें, कहाँ नही हैं। मै अन्धेरी घाटियों के पास भूलकर भी न जाऊँगा। आकर सफरका सामान ठीक किया और ईश्वरका नाम लेकर नियत समयपर स्टेशनकी तरफ चला, पर अपने आलापी मित्रोंसे इसका कुछ जिक्र न किया, क्योकि मुझे पूरा विश्वास था कि दो ही चार दिनमे फिर अपना सा मुँह लेकर लौटना पडेगा। [२] गाडीपर बैठा तो शाम हो गयी थी। कुछ देरतक तो सिगार और पत्रोले दिल बहलाता रहा। फिर मालूम नहीं कब नींद आ गयी। आँखे खुली और खिड़कीसे बाहरकी तरफ हॉका तो उषाकालका मनोहर दृश्य दिखाई दिया। दोनों ओर हरे वृक्षोंसे ढंकी हुई पर्वत श्रेणियाँ, उनपर चरती हुई उजली-उजली माये और भेड़े सूर्यकी सुनहरी किरणोंमे रॅगी हुई बहुत सुन्दर मालूम होती थी। जी चाहता था कि कहीं मेरी कुटिया भी इन्ही सुखद पहाडियोमे होती, जङ्गलके फल खाता, झरनोंका वाजा पानी पीता और आनन्दके गीत गाता। यकायक दृश्य बदला, कही उजले-उजले पक्षी तैरते थे और कही छोटी-छोटी डोंगिया निर्बल आत्माओके सदृश डगमगाती हुई चली जाती थी। यह दृश्य भी बदला । पहाडियोंके दामनमे एक गाँव नजर आया, झाड़ियो और वृक्षोंसे ढका हुआ, मानो शान्ति और सन्तोषने यहाँ अपना निवासस्थान बनाया हो। कही बच्चे खेलते थे, कही गाय के बछडे किलोले करते थे। फिर एक घना जगल मिला । झुड के हुड हिरन दिखाई दिये जो गाडीको हाहाकार