पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ज्वालामुखी सुनतेही चौकड़ियाँ भरते दूर भाग जाते थे | यह सब दृश्य स्वप्न के चित्रोंके समान ऑखोंके सामने आते थे और एक क्षणमें गायब हो जाते थे। उनमें एक अवर्णनीय शान्तिदायिनी शोभा थी जिससे दृश्यमें आकाक्षाओंके आवेग उठने लगते थे। आखिर ऐशगह निकट आया। मैने बिस्तर संभाला। जरा देरमे सिमल दिखाई दिया । मेरी छाती धड़कने लगी। गाडी स्की । मैंने उतरकर इधर-उधर देखा, कुलियोंको पुकारने लगा कि इतनेमे दो वरदी पहने हुए आदमियोने आकर मुझे सादर सलाम किया और पूछा-'आप · से आ रहे हैं न, चलिये मोटर तैयार है। मेरी बाछे खिल गयी। अबतक कभी मोटरपर बैठनेका सौभाग्य न हुआ था। शानके साथ जा बैठा। मनमें बहुत लजित था कि ऐसे फटे हाल क्यो आया, अगर जानता कि सचमुच सौभाग्य सूर्य चमका है तो गटबाटसे आता। खैर मोटर चली, दोनों तरफ मौलसरीके सघन वृक्ष थे। सडकपर लाल बजरी बिछी हुई थी । सड़क हरे-भरे मैदानमे किसी सुरम्य जलधाराके सदृश बल खाती चली गयी थी। दस मिनट भी न गुजरे होंगे कि सामने एक शान्तिमय सागर दिखाई दिया। सागरके उस पार पहाड़ीपर एक विशाल भवन बना हुआ था। भवन अभिमानसे सिर उठाये हुए था, सागर सन्तोषसे नीचे लेटा हुआ, सारा दृश्य काव्य श्रृङ्गार, और आमोदसे भरा हुआ था। हम सदर दरवाजेपर पहुँचे, कई आदमियोने दौड़कर मेरा स्वागत किया। इनमें एक शौकीन मुन्शीजी थे, जो बाल सॅबारे ऑखों में सुर्मा लगाए हुए थे। मेरे लिए जो कम सजाया गया