पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१८८

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प्रेम पूर्णिमा २८८ था उसके द्वारपर मुझे पहुँचाकर बोले- सरकारने फरमाया है, इस समय आप आराम करे, सन्ध्या समय मुलाकात कीजियेगा। मुझे अबतक इसको कुछ खबर न थी कि यह 'सरकार' कौन हैं, न मुझे किसीसे पूछने का साहस हुआ, क्योकि अपने स्वामीके नामतकसे अनभिज्ञ होनेका परिचय नहीं देना चाहता था। मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेरा स्वामी बड़ा सजन मनुष्य था । मुझे इतने आदर सत्कारको कदापि आशा न थी। अपने सुसज्जित कमरे में जाकर जब मै एक आराम-कुरसीपर बैठा तो हर्षसे विह्वल हा गया । पहाडियोंकी तरफसे शीतल वायुके मन्द-मन्द झोंके आ रहे थे। सामने छजा था। नीचे झील थी, सॉपके केचुलके सदृश और प्रकाशसे पूर्ण, और मैं; जिसे भाग्य देवीने सदैव अपना सौतेला लड़का समझा था इस समय जीवनमें पहली बार निर्विघ्न आनन्दका सुख उठा रहा था। तीसरे पहर उन्हीं शौकीन मुन्शीजीने आकर इत्तला दी कि सरकारने याद किया है। मैंने इस बीच में बाल बना लिये थे। तुरन्त अपना सर्वोत्तम सूट पहना और मुन्शीजीके साथ सरकार की सेवामें चला । इस समय मेरे मनमे यह शङ्का उठ रही थी कि कहीं मेरी बातचीतसे स्वामी असन्तुष्ट न हो जाये और उन्होंने मेरे विषयमें जो विचार स्थिर किया हो उसमें कोई अन्तर न पड़ जाय तथापि मैं अपनी योग्यताका परिचय देनेके लिए खूब तैयार था। हम कई बरामदोसे होते अन्तमें सरकारके कमरेके दरवाजेपर पहुँचे । रेशमी परदा पड़ा हुआ था। मुन्धीजीने परवा.