पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१८९

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ज्वालामुखी उठाकर मुझे इशारेसे बुलाया। मैंने काँपते हुए हृदयसे कमरेमें कदम रखा और आश्चर्यसे चकित हो गया ! मेरे सामने सौन्दर्यकी एक ज्वाला दीप्तिमान थी। [३] फूल भी सुन्दर है और दीपक भी सुन्दर है। फूलमें ठडक और सुगन्धि है, दीपक में प्रकाश और उद्दीपन । फूलपर भ्रमर उड़-उड़कर उसका रस लेता है, दीपकपर पतङ्ग जलकर राख हो जाता है। मेरे सामने कारचोबी मसनदपर जो सुन्दरी विराज- मान थी, वह सौन्दर्यकी एक प्रकाशमय ज्वाला थी। फूलकी पॅखड़िया हो सकती हैं, ज्वालाको विभक करना असम्भव है। उसके एक एक अद्भकी प्रशक्षा करना ज्वालाको काटना है। वह नख सिख एक ज्वाला थी, वही दीपन, वही चमक, वही लालिमा, यही प्रभा । कोई चित्रकार प्रतिमा सौन्दर्यका इससे अच्छा चित्र नहीं खींच सकता था। रमणीने मेरी तरफ वात्सल्य दृष्टिसे देखकर कहा--आपको सफरमें कोई विशेष कष्ट तो नही हुआ ! मैंने सँभलकर उत्तर दिया-जी नही, कोई कष्ट नहीं हुआ। रमणी-यह स्थान पसन्द आया ? मैंने साहसपूर्ण उत्साहके साथ जवाब दिया-ऐसा सुन्दर स्थान पृथ्वीपर न होगा। हॉ, गाइडबुक देखनेसे विदित हुआ कि यहॉका जलवायु जैसा सुखद प्रकट होता है यथार्थमें वैसा नहीं, विषैले पशुओंकी भी शिकायत है। यह सुनते ही रमणीका मुखसूर्य कान्तिहीन हो गया। मैंने तो यह चर्चा इसलिये कर दी थी, जिससे प्रकट हो जाय कि यहाँ