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प्रेम-पूर्णिमा
१६
 

यहॉतक कि घरमें झाड़ू देनेसे भी घृणा न थी, हा ज्ञानान्धे! बहू स्त्री क्या थी, मिट्टीका लोंदा थी। एक पैसेकी भी जरूरत होती तो साससे मॉगती। साराश यह कि दोनों जनी अपने अधि- कारोंसे बेखबर, अन्धकार में पड़ी हुई पशुवत् जीवन व्यतीत करती थी। ऐसी फूहड थी कि रोटियाॅ भी अपने हाथसे बना लेती थी। कजूसीके मारे दालमोट, समोसे कभी बाजारसे न मॅगाती। आगरेवालेकी दूकानकी चीजे खाई होती तो उनका मजा जानती। बुढ़िया खूसट दवा दरपन भी जानती थी बैठी-बैठी घासपात फूठा करती।

मुन्शीजीने माके पास जाकर कहा—अम्मा! अब क्या होगा? भानुकुॅवरिने मुझे जवाब दे दिया।

माताने घबराकर पूछा—जवाब दे दिया?

मुन्शीजी—हॉ, बिल्कुल बेकसूर!

माता—क्या बात हुई। भानुकुॅवरिका मिजाज तो ऐसा नथा।

मुन्शीजी—बात कुछ न थी। मैंने अपने नामसे जो गाॅव लिया था उसे मैने अपने अधिकारमें कर लिया। कल मुझसे और उनसे साफ-साफ बातें हुईं, मैंने कह दिया कि यह गाॅव मेरा है। मैने अपने नामसे लिया है। उसमें तुम्हारा कोई इजारा नही। बस, बिगड गईं, जो मुॅहमें आया बकती रही। उसी वक्त मुझे निकाल दिया और धमका कर कहा, मैं तुमसे लड़कर अपना गाँव ले लूँगी। अब आज ही उनकी तरफसे मेरे ऊपर मुकद्दमा दायर होगा। मगर इससे होता क्या है। गॉव मेरा है। उसपर मेरा कब्जा है। एक नही हजार मुकद्दमे चलावें डिगरी मेरी होगी—

माताने बहूकी तरफ मर्मान्तक दृष्टिसे देखा और बोली—