पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१९२

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प्रेम पूर्णिमा १९२ महाशय कहते हैं- बहुत दिन हुए आपकी प्रेरणासे मै अपने बड़े भाईकी मृत्युके बाद उनकी सम्पत्तिका अधिकारी बन बैठा था। अब उनका पुत्र वयस प्राप्त कर चुका है और मुझसे अपने पिताकी जायदाद लौटाना चाहता है। इतने दिनोंतक उस सम्पत्तिका उपभोग करनेके पश्चात् अब उसका हायसे निकालना अखर रहा है, आपकी इस विषयमें क्या सम्मत्ति है। इनको उत्तर दीजिये कि इस समय कूट नीतिसे काम लो, अपने भतीजे को कपट प्रेमसे मिला लो और जब वह निःशंक हो जाय तो उससे एक सादे स्टाम्पपर हस्ताक्षर करा लो | इसके पीछे पटवारी और अन्य कर्मचारियोंकी मददसे इसी स्टाम्पपर जायदादका बैनामा लिखा लो। यदि एक लगाकर दो मिलते हो तो आगा- पीछा मत करो। यह उत्तर सुनकर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ। नीति ज्ञानको धक्का सा लगा। सोचने लगा, यह रमणी कौन है और क्यों ऐसे अर्थका परामर्श देती है। ऐसे खुल्लमखुला तो कोई वकील भी किसीको यह राय न देगा। उसकी ओर सन्देहात्मक भावसे देखकर बोला-यह तो सर्वथा न्यायविरुद्ध प्रतीत होता है। कामिनी खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली-न्यायकी आपने मली कही। यह केवल धर्मान्ध मनुष्योंका मनसमझौता है, संसारमें इसका अस्तित्व नहीं। बाप ऋण लेकर मर जाय, लड़का कौड़ी-कौड़ी भरे। विद्वान् लोग इसे न्याय कहते हैं, मै इसे घोर अत्याचार समझती हूँ। इस न्यायके परदेमे गाँठके पूरे महाजनकी हेकड़ी साफ झलक रही है। एक डाकू किसी भद्र पुरुषके घरमें हाका मारता है, लोग उसे पकड़कर कैद कर देते