पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१९५

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क्वालामुखी नन्दको जगह एक प्रबल मानसिक अशान्तिका अनुभव होता था। उसकी चितवनें केवल हृदयको,बाणोंके समान छेदती थीं, उसके कटाक्ष चिचको व्यस्त करते थे। शिकारी अपने शिकारको 'खेलाने में जो आनन्द पाता है वही उस परम सुन्दरीको मेरी प्रेमातुरतामें प्राप्त होता था। वह एक सौन्दर्य ज्वाला थी और ज्वाला जलानेके सिवाय और क्या कर सकती है। तिसपर भी मैं पताकी भाति उस ज्वालापर अपनेकोसमर्पण करना चाहता था। यही आकाक्षा होती थी कि उन पद कमलोपर सिर रखकर प्राण दे दूं। यह केवल उपासककी भक्ति थी, काम और वासनाओंसे शन्य। कभी कभी जब वह सन्ध्या समय अपने मोटर वोटपर बैठकर सागरकी सैर करती तो ऐसा जान पड़ता मानों चन्द्रमा आकाश- लालिमामें तैर रहा है। मुझे इस दृश्यमें अनुपम सुख प्राप्त होता था। मुझे अब अपने नियत कायों में खूब अभ्यास हो गया था । मेरे पास प्रतिदिन पत्रोंका एक पोथा पहुँच जाता था। मालूम नहीं किस डाकसे आता था । लिफाफोंपर कोई मोहर न होती थी। मुझे इन जिज्ञासुओंमें बहुधा वह लोग मिलते थे जिनका मेरी दृष्टि में बड़ा आदर था, कितने ही ऐसे महात्मा थे जिनमें मुझे श्रद्धा थी। बडे-बडे विद्वान् लेखक और अश्यापक, बड़े बड़े ऐश्वर्यवान रईस, यहॉतक कि कितने ही धर्मके आचार्य, नित्य अपनी राम कहानी सुनाते थे। उनकी दशा अत्यन्त करुणाजनक थी। वह सब के-सब मुझे रंगे हुए सियार दिखाई देते थे। जिन लेखकोको मै अपनी भाषाका स्तम्भ समझता था उनसे घृणा