पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१९६

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प्रेम-पूर्णिमा १९६ "होने लगी। वह केवल उचक्के थे, जिनकी सारी कीर्ति चोरी, अनुबाद और कतर व्यौतपर निर्भर थी। जिन धर्मके आचार्योको मैं पूज्य समझता था वह स्वार्थ, तृष्णा और घोर नीचताके दलदलमें फंसे हुए दिखाई देते थे। मुझे धीरे-धीरे यह अनुभव हो रहा था कि संसारकी उत्पत्तिसे अबतक, लाखों शताब्दियों बीत जानेपर भी मनुष्य वैसा ही कर, वैसा ही वासनाओका गुलाम बना हुआ है। बल्कि उस समयके लोग सरल प्रकृति के कारगए इतने कुटिल, दुराग्रहोंमे इतने चालाक न होते थे। एक दिन सन्ध्या समय उस रमणीने मुझे बुलाया। मै अपने घमण्डमें यह समझता था कि मेरे पाकेपनका कुछ न कुछ असर उसपर भी होता है। अपना सर्वोत्तम सूट पहना, बाल सँवारे और विरक्त भावसे जाकर बैठ गया। यदि वह मुझे अपना शिकार बना कर खेलती थी तो मैं भी शिकार बनकर उसे खेलाना चाहतो था। ज्योंही मैं पहुँचा उस लावण्यमयीने सुस्कराकर मेरा स्वागत किया, पर मुख चन्द्र कुछ मलीन था। मैने अधीर होकर पूछा- सरकारका जी तो अच्छा है। उसने निराशभावसे उत्तर दिया-जी हाँ, एक महीनेसे एक कठिन रोगमें फंस गयी हूँ। अबतक किसी भाँति अपनेको संभाल सकी हूँ, पर अब रोग असाध्य होता जाता है। उसकी औषधि एक निर्दय मनुष्यके पास है । वह मुझे प्रतिदिन तड़पते देखता है पर उसका पाषाण हृदय जरा भी नहीं एखीजता।