पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/१९७

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२९७ ज्वालामुखी मै इशारा समझ गया ! सारे शरीरमें एक बिजली-सी दौड़ गयी। सॉस बडे वेगसे चलने लगी। एक उन्मत्तताका अनुभव होने लगा । निर्भय होकर बोला-सम्भव है जिसे आपने निर्दय समझ रखा हो वह भी आपको ऐसा ही समझता हो और भयसे मुंह खोलनेका साहस न कर सकता हो । सुन्दरीने कहा-तो कोई ऐसा उपाय बताइये जिससे दोनों ओरकी आग बुझे। प्रियतम ! अब मै अपने हृदयकी दहकती हुई विरहामिको नहीं छिपा सकती। मेरा सर्वस्व आपको भेट है। मेरे पास वह खजाने हैं जो कभी खाली न होंगे, मेरे पास वह साधन हैं जो आपको कीर्तिसे शिखरपर पहुँचा देगे। मैं समस्त ससारको आपके पैरोंपर झुका सकती हूँ। बडे बडे सम्राट भी मेरी आज्ञाको नहीं टाल सकते । मेरे पास वह मन्त्र है जिससे मैं मनुष्यके मनोधेगोंको क्षणमात्रमें पलट सकती हूँ। आइये मेरे हृदयसे लिपट कर इस दाह क्रान्तिको शान्त कीजिये । रमणीके चेहरेपर जलती हुई आगकी-सी कान्ति थी। वह दोनों हाथ फैलाये कामोन्मत्त होकर मेरी ओर बढी। उसकी ऑखोंसे आगकी चिनगारियों निकल रही थी। परन्तु जिस प्रकार अग्निसे पारा दूर भागता है उसी प्रकार मैं भी उसके सामनेसे एक कदम पीछे हट गया। उसकी इस प्रेमातुरतासे मैं भयभीत हो गया, जैसे कोई निर्धन मनुष्य किसीके हाथोंसे सोनेकी ईट लेते हुए भयभीत हो जाय । मेरा चित्त एक अज्ञात आशंकासे कॉप उठा। रमणीने मेरी ओर अग्निमय नेत्रोंसे देखा मानों किसी सिहनीके मुंहसे उसका आहार छिन जाय और सरोष होकर बोली-यह भीरता क्यो ?